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Thursday, July 29, 2010

कविता - एक और अभिशाप

आज फिर मखमली सी हथेलियां मेंहदी से रचाई गई,
आज फिर मरमरी से इन पाओं में महावर रचाई गई,
दुख-दर्द से पड़े ज़र्द चेहरे को कृत्रिम सी सफ़ेदी दे कर -
आज फिर इस चेहरे पर लालिमा सूरज की रचाई गई।

आज फिर ये वीरान सी आंखें काजल से सजाई गई,
आज फिर इन सूखे पड़े होठों पर लाली सजाई गई,
मग़र ये लब जो जाने कब से सिसकियां भर रहे थे -
आज इनपे एक क्षीण सी मुस्कान भी ना सजाई गई।

आज फिर सूनी पड़ी ये कलाइयां चूड़ियों से सजाई गई,
आज फिर उजड़ी पड़ी मांग सिंदूर के रंग से सजाई गई,
सती-प्रथा के हामी समाज के ठेकेदारों के इसरार पर -
आज फिर एक विधवा पति की चिता पर बिठाई गई।

कविता - एक अभिशाप

यह हाथ जो आज पत्थर ढो रहे हैं मेंहदी इन हथेलियों में रचा देते तो क्या था,
पत्थरों और कांटों से उलझते हुए इन पाओं में भी महावर रचा देते तो क्या था,
लेकिन यह चेहरा जो ज़माने की तानाज़नी और छींटाकशी से ज़र्द हो गया वरना -
इस चेहरे में आफ़ताब की रौशनी और चांद की चांदनी को रचा देते तो क्या था।

इन मुंतज़िर आंखों को यदि रात की कालिमा के काजल से सजा देते तो क्या था,
वक्त की मार से पीले पड़े इन होठों पे सूरज की लालिमा सजा देते तो क्या था,
लेकिन तकदीर-औ-तदबीर की कशमकश के मारे ऐसा कुछ भी न हो सका वरना -
सिसकियां भरते हुए रूखे लबों पे खुशियों की मुस्कान जो सजा देते तो क्या था।

चूड़ियों की खनक को भूली हुई कलाइयों में फिर चूड़ियां सजा देते तो क्या था,
इस हसीन दोशीजा को ज़ेवरात-औ-आभूषणों से फिर से सजा देते तो क्या था,
पर समाज के ये ठेकेदार विधवा-विवाह को आज भी अभिशाप कहते हैं वरना -
सुनसान सड़क की तरह दिखती इस मांग को सिंदूर से सजा देते तो क्या था।

Thursday, July 1, 2010

नज़म - जीवन संगिनी

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से फूल झरते हैं,
फूल जो उन के मुख से झरते है हम उनको चुनते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ाना नए गुलदस्ते सजते हैं,
इस तरह घर में ही बहार-ए-चमन से हम मिलते हैं।

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से मोती चमकते हैं,
मोतियों की इस चमक से हम झोली भर लिया करते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ ही नए नए फ़ानूस सजते हैं,
इस तरह घर में ही चांद-औ-सूरज की रौशनी भरते हैं।

ज़िंदगी के चमन में उनकी हंसी के गुल सदैव महकते हैं,
ज़िंदगी की चमक में हम उनकी हंसी की चमक भरते हैं,
बनके जीवन संगिनी मेरे जीवन में वोह कुछ यूं सजते हैं,
सफ़र-ए-हयात में अपने सब कदम साथ ही साथ उठते हैं।