चंद चुनींदा रुबाइयां शोर-औ-खामोशी 1. इस कदर शोर है चारों तरफ़ कि कोई आवाज़ भी सुनाई नहीं देती, इस कदर शोर है अपने इर्द गिर्द अपनी आवाज़ ही सुनाई नहीं देती, हदूद-ए-शोर कुछ तो तय हो जो आदमी किसी तरह तो इससे बर आए - इस कदर शोर है अपने अंदर कि दिल की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती। 2. इस कदर खामोशी है हर-सू कि मद्धिम सी आवाज़ भी कोहराम मचा देती है, इस कदर खामोशी है अपने इर्द गिर्द अपनी आवाज़ की गूंज भी सुनाई देती है, हदूद-ए-खामोशी कुछ तो मुकरर हो जो आदमी किसी तरह तो इससे बर आए - इस कदर खामोशी है अपने अंदर कि धड़कन-ए-दिल भी साफ़ ही सुनाई देती है। ******************************************************************** ओस की बूंदें 3. जब किसी गुलाब के फूल पर ओस का एक कतरा नज़र आता है, तो यूं लगता है कि जैसे रुखसार पर आंसु टपक कर ठहर जाता है, ओस के कतरे यूं तो पूरे माहौल में ठंडक पहुंचाते हैं पर यही कतरा - आग भड़का देता है आंख से छलक कर जब रुखसार पर ढलक आता है । 4. जब कभी ओस की बूंदें नज़र आती हैं किसी ग़ुलाब के पंखों के ऊपर, तो छा जाते हैं तुम्हारे लरज़ते हुए लबों के साए मेरे ज़हन के ऊपर, जब कभी ओस की बूंदें नज़र आ जाती हैं कहीं भी खुश्क पत्तों पर तो - ऐसे लगता है कि रहमत तेरी की बरसात हो रही है बियाबानों के ऊपर। ******************************************************************** जोड़ तोड़ दिलों का 5. हमने उनसे कहा, "टुकड़े मेरे दिल के करके यूं फ़ज़ा में मत छोड़ो, ये उड़ जाएंगे", मुस्कुरा कर वोह बोले, "हमारे लिए इनकी कशिश तो देखो, वापिस ये मुड़ आएंगे, देखकर अपने दिल के टुकड़ों को परेशान मत होना, हम तो वोह तौफ़ीक रखते हैं - कि एक नज़र डालेंगे हम तुम्हारे दिल के टुकड़ों पर, खुद-ब-खुद ये जुड़ जाएंगे"। 6. हमने भी मुस्कुरा कर कहा, "माना कि दिलों के जोड़ तोड़ में आप तौफ़ीक रखते हैं, दिल को पत्थर सा सख्त और नाज़ुक शीशे सा रखने में हम भी तो तौफ़ीक रखते हैं, हमारा दिल हाथ से गिर कर भले ही ना टूटे पर नज़र से गिर के फ़ौरन टूट जाता है - हमारे दिल को नज़र से ना गिराइएगा, हालांकि इसकी भी आप तौफ़ीक रखते हैं"। ******************************************************************** उसका नाम 7. हर नियामत उसे मयस्सर होती है जो जिए जाता है उसके नाम के साथ, याद फ़क्त उसकी दिल में बसा कर जो जिए जाता है उसके नाम के साथ, परचम उसी की फ़तह का ज़मीं से फ़लक तक लहराता रहेगा कयामत तक - कौन उस को मिटा सकता है जो वाबस्ता हो जाता है उसके नाम के साथ। 8. हो जाओ तुम भी हकीकत-ए-आशनां और जुड़ जाओ उसके नाम के साथ, इबादत के लिए फ़क्त यही काफ़ी है कि जिए जाओ उसके नाम के साथ, आज हम हैं पर कल रहेंगे या नहीं रहेंगे, इसकी खबर किस को रहती है - बात यह हमेशा ज़हन में रखो कि जीना है फ़क्त उसी के नाम के साथ। ******************************************************************** 9. खुद आ के घर, खुद आ के दीदार कर लो, खुद आ के घर, खुदा के दीदार कर लो, खुदा के घर, खुद आ के दीदार कर लो, खुदा के घर, खुदा के दीदार कर लो। ******************************************************************** 10. आज तो आज है, कल जो कल था उसके वजूद को निगल गया सिर्फ़ आज, कल जो कल होगा वोह भी कल नहीं रहेगा, वोह भी बन जाएगा सिर्फ़ आज, और अगर कल, आज एवं कल में कोई हकीकत है तो वोह भी है सिर्फ़ आज, फिर क्यों सोचें एक कल की या दूसरे कल की, क्यों ना जिया जाए सिर्फ़ आज। ******************************************************************** 11. मुंतज़िर हैं हम कि फुरसत-ए-निगाह उन्हें जब मिले तो वोह हमसे नज़रें चार करें, मुंतज़िर हैं हम कि संवरें तकदीर के तेवर वोह हम पे निगाह-ए-कर्म एक बार करें, गुज़ारते जा रहे हैं अपनी ज़िन्दगी को हम महज़ यही हसरत-ए-खुशफ़हमी ले कर - कि जिसके लिए निगाहें हमारी हमेशा मुंतज़िर हैं, कभी वोह भी तो हमारा इंतेज़ार करें। ******************************************************************** 12. ज़िंदगी में कभी ना आने दो अना की जंग को, अना को तर्क कर के मना लो अपने संग को, ज़िंदगी में अना जो हावी हो गई तो समझ लो - इश्क के नसीब में भर देगी जुदाई के रंग को। ******************************************************************** 13. बेलौज़ मोहब्बत आपसे करते हैं हम, यकीन करके तो आप देखो, हमारे लिए नायाब है आपकी मोहब्बत, यकीन करके तो आप देखो, मोहब्बत-औ-प्यार में शक-औ-शुबह की गुंजाइश नहीं हुआ करती - जान-औ-दिल दोनों आप पर सदके हैं, यकीन करके तो आप देखो। ******************************************************************** 14. "हम और तुम - तुम और हम", इन लफ़्ज़ों की हकीकत क्या है? रोज़ाना इस्तेमाल करते हैं हम इन्हें पर इनकी अहमियत क्या है? कहने को तो ये फ़क्त दो लफ़्ज़ हैं पर हैं ये एक ही सिक्के के दो रुख - वजूद दो लफ़्ज़ी सही इनका लेकिन कायनात बग़ैर इनके क्या है? ******************************************************************** 15. तुम्हारे दहकते हुए रुख़सारों की सुर्खी नें बहार के मानी बदल डाले, तुम्हारी बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों नें घटा-औ-बरसात के मानी बदल डाले, अब कशमकश रह ही कहां गई है, रात को भी रोक लिया है हमने - तुम्हारे आने और आके चले जाने नें तो तिश्नगी के मानी बदल डाले। ******************************************************************** 16. महबूब के यहां आ के महबूबा का बहुत ही प्यार से आवाज़ दे कर बुलाना, महबूब का जोश-औ-खरोश से घर से बाहर आके अपने होश-औ-हवास खोना, दर-हकीकत अहम वजह में महबूबा के जलवा-औ-जलाल का असर तो था ही - पर दूसरी वजह इसकी तो महबूबा का अपने अब्बा जान को भी साथ ले के आना। ******************************************************************** 17. अब तो खुद अपने आप को भी फ़रेब देने में माहिर हो गया हूं मैं, अय्याम की तल्खियों को हंस कर पी लेने में माहिर हो गया हूं मैं, हस्बा-ए-मामूल है छुपा जाना ग़मों को मुस्कुराहटों की ओट ले कर - ग़मों के बोझे तले दब के भी सिर उठा लेने में माहिर हो गया हूं मैं। ******************************************************************** 18. आपकी गोद में सुखद जीवन की अनुभूति को मैंने पाया, उस से पृथक तो उपलब्ध है केवल मृत्यु का घना साया, मृत्युपरांत पुनर्जन्म की प्राप्ति में अटूट विश्वास है मेरा - आप की गोद से दूर मेरा जीवन सर्वस्व ही कहां हो पाया। ******************************************************************** 19. आप और हम जब तलक मिले न थे तो अनभिज्ञ थे हम वियोग के नाम से, अब मिल गए हैं जब तो प्रति क्षण मन विचलित होता है वियोग के नाम से, आपसे न मिलना प्रलय समान था, मिलनोपरांत वियोग भी प्रलय से कम नहीं - आप के साथ जीवन की अनुभूति है और आभास मृत्यु का है वियोग के नाम से। ******************************************************************** 20. ग़म ही तो हैं जो शोला-ए-इश्क को भड़काते रहते हैं, ग़म ही तो हैं जो पुतली के जैसे हमें नचाते रहते हैं, इन का सहारा ही तो ज़िंदगी को सार्थक कर देता है - ग़म ही तो हैं जो ज़िन्दगी को जीने को उकसाते रहते हैं। ******************************************************************** 21. ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, मेरा दिल मेरे पहलू में धड़कने लगता है, ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, शोला-ए-जज़्बात मेरा भड़कने लगता है, ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, सराब ये सारे हकीकत लगने लगते हैं - ना कहो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है, तार तार सांसों का थिरकने लगता है। ******************************************************************** 22. अपने अंदर तो अल्फ़ाज़ का एक हुजूम सा इकट्ठा कर के बोलो, आपने हमसे यह क्यों कह दिया कि किताब-ए-अल्फ़ाज़ को ना खोलो, बहुत आसान होता है किसी की भी ज़ुबान पर ताला लगा देना - हम भी तो आपको तब मानें जो आप भी अपनी ज़ुबान ना खोलो। ******************************************************************** 23. आपकी ज़ुल्फ़ों के पेच-औ-ख़म में खुद को उलझा हुआ ही पा रहे हैं हम, दिमाग के पुर्ज़े तक घूम के रह गए हैं, कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं हम, इन टेहड़े मेहड़े रास्तों से निकलना आसान भी है या नहीं, फिर सोचता हूं - कि आखिर इनसे निकलने की ज़रूरत क्यों महसूस कर ही पा रहे हैं हम। ******************************************************************** 24. तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इज़हार से, तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इसरार से, जब मिले थे उनसे पहली बार और अपना दिल हार के चले आए थे - तव्वको है उनसे कि देखें फिर एक बार उसी अंदाज़-ए-इकरार से। ******************************************************************** 25. अंधेरों के बंद दरवाजे आख़िर कब तक हम पे ढाएंगे सितम, रात के कातिल अंधेरों के खुद-ब-खुद मिट जाएंगे सितम, फ़क्त चंद पहरों की तो बात है, सुबह के सूरज को आने तो दो - रौशनी के दरवाज़े सब खुल जाएंगे, फ़ना हो जाएंगे सितम। ******************************************************************** 26. कितना आसान है कह देना कि मां बाप तो बस अपना फ़र्ज़ निभाए जाते हैं, और मां बाप भी अपना यह फ़र्ज़ बेगर्ज़ होकर आसानी से निभाए जाते हैं, माना कि यह फ़र्ज़ है मां बाप का पर यह फ़र्ज़ तो उनका कर्ज़ है आप पर – यह जो कर्ज़ मां बाप का है आप पर, क्या आप भी उसको निभाए जाते हैं। ******************************************************************** 27. "क्या बात है, संता सिंह, बहुत दांत निकाल रहे हो", रफ़ीक भाई बोले, "अभी के अभी चौंतीस दांत तोड़ कर हाथ में दे दूंगा", रफ़ीक भाई बोले, संता का दोस्त बंता बोला, "पर, रफ़ीक भाई, दांत तो बत्तीस ही होते हैं - "मुझे पता है, दो दांत मैंने तुम्हारे भी गिन लिए थे", रफ़ीक भाई बोले। ******************************************************************** 28. एक्सियन साहब ने हंसते हुए ठेकेदार से कहा, "ठेकेदार साहब, "तुम्हारा बनाया हुआ यह पुल अभी तक सलामत किसलिए है", ठेकेदार ने भी मुस्कुराते हुए उन्हें जवाब दिया, "जनाब-ए-वाला, अभी तक उसकी पेमैंट जो नहीं हुई, वोह सलामत इसलिए है"। ******************************************************************** 29. मोहब्बत में जो ज़ुल्म-औ-सितम की इंतेहा करते हैं, इश्क-औ-मोहब्बत के नाम को वोह बदख्वाह करते हैं, कम-इल्म हैं वोह या फिर नावाकिफ़ हैं हकीकत से - कि खुदा की शान में वोह एक संगीन गुनाह करते हैं। ******************************************************************** 30. मेरे कमरे में उसका दबे पांव आ जाना भी गज़ब, और चुपके से मेरी पेशानी को चूम लेना भी गज़ब, और फिर मुझको मुस्कुराकर आंखें खोलता देखकर - उसका पापा कहकर मुझसे लिपट जाना भी गज़ब। ******************************************************************** 31. एहसास है तो रूदाद-ए-हयात है, एहसास है तो सांसों का साथ है, एहसास का ज़िंदा रहना ज़रूरी है - एहसास है तो कायम कायनात है। ****************************************************************************** 32. काली रातें क्या बिगाड़ सकती हैं तुम्हारा या मेरा, काली रातें तो आती हैं जाती हैं डालती नहीं हैं डेरा, काली रातें आती हैं बनके मेहमान चंद घड़ियों की - काली रातें दे जाती हैं जाते जाते इक उजला सवेरा। 33. आप मेरी खामोशी-ए-लब पर ही एतबार किए बैठे हैं, मेरे दिल में कोई ग़म नहीं है, यह यकीन किए बैठे हैं, आतिशफ़िशां में क्या है, फूटने पर ही नज़र आता है - और आप हैं कि उसकी चुप्पी पर मुतमइन हुए बैठे हैं। ****************************************************************************** 34. साकिया खूब नाज़-औ-अंदाज़ से आप ने मेहरबानी की है हम पर, इस कदर पिलाई है हमें कि होश-औ-हवास भी नहीं बाकी है हम पर, और बावजूद इसके दस्तूर-ए-हिज्जाब आप फिर भी निभाए जाते हैं - एक होशमंद को कर के बेहोश क्यों यह रस्म-ए-पर्दगी है हम पर। ****************************************************************************** 35. अजब थे, साकिया, आप के अंदाज़-ए-शौक-औ-सजावट के कल शब, गज़ब थे, यकीनन, मंज़र आपकी इंतेहा-ए-शौक-औ-सजावट के कल शब, हम तो सच में कायल हो गए आपकी इंतेहा-ए-इनायत को देखकर – आपकी बज़्म में सिर्फ़ हम थे, आप थे और और कोई ना थे कल शब। ****************************************************************************** 36. पाल लेते हैं इस जहां में जो जो भी मर्ज़-ए-इश्क, इंतेहा-ए-दर्द से बहुत बहाने पड़ते हैं उनको अश्क, पर असलियत में जीना तो बस उन्हीं का जीना है - दुनियां वाले तो बस करते रह जाते हैं उनसे रश्क। ****************************************************************************** 37. रिवायतों को मानना, यह माना कि सदियों पुरानी कहानी है, लेकिन रिवायतों का ग़ुलाम बन कर रह जाना भी नादानी है, रिवायतों को मानते रहना ही अगर बवाल-ए-जान बन जाए - तो फिर रिवायतों को तोड़ देना ही समझदारी की निशानी है। ****************************************************************************** 38. पीकर जाम-औ-मीना से अगर आप लड़खड़ा दिए तो क्या कमाल किया, चश्म-ए-साकी से पीकर लड़खड़ाते तो हम समझते कुछ कमाल किया, उनका तो सिर्फ़ अल्लाह ही हाफ़िज़ है जो बिन पिए ही डगमगाते रहते हैं - हमारी तरह जो पी कर संभल जाते तो हम मानते कुछ कमाल किया। 39. अना चीज़ है वोह जो किसी के भी ज़हन पर कभी भी छा सकती है, छीन सकती है होश-औ-हवास और तबाह और बर्बाद कर सकती है, असलियत में अना वही पाल सकता है जिसकी सोच में यह हो कि - एक अना ही तो है जो उस के एहसास-ए-कमतरी को छुपा सकती है। ****************************************************************************** 40. सहमे सहमे से क्यों नज़र आ रहे हैं ये तुम्हारे शहर के लोग, चारसू बेबसी का आलम है, अफ़्सुर्दा हैं तुम्हारे शहर के लोग, दहशतगर्दों या हुकुमरानों से दहशत खाए हुए हैं ये लोग या - अपने ही किसी खौफ़ से खौफ़ज़दा हैं तुम्हारे शहर के लोग। ****************************************************************************** 41. तूफ़ान ने तो तसल्ली से उछाल दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर, तूफ़ान ने तो निहायत खैरियत से पहुंचा दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर, इसे नाकामी अपनी तदबीरों की समझें या फिर साज़िश मानें हालात की - या कहें इसे बेरुखी तकदीर की जो डुबा दिया था मेरे सफ़ीने को साहिल पर। ****************************************************************************** 42. तुम से हमें ना कभी कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला, हमें तो दुनियां से भी ना कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला, तुम तो अपने होकर भी आगे बढ़ गए, तुमसे गिला करते भी तो कैसे – तो दुनियां से भी हमें ना कोई शिकवा रहा और ना ही कभी कोई गिला। ****************************************************************************** 43. क्या कर दिया जो किसी के दिल से अपना दिल मैंने एक कर लिया, किसी का बनने का और उसको अपना बनाने का मैंने दम भर लिया, ऐसा क्या हो गया कि सभी लोग मेरे लिए दुआ ही दुआ मांग रहे हैं - दिल को ही लगाया है किसी से, कोई गुनाह तो मैंने नहीं कर लिया। ****************************************************************************** 44. माज़ी की वोह बात जिसके ज़िक्र पर वोह शर्म से लाल हुए जा रहे थे, और चेहरे की बदलती हुई रंगत में वोह हमें और भी ज़्यादा भा रहे थे, हमारी शोख़ी भी देखिए, उसी बात को हम बार बार दोहराए जा रहे थे, और रफ़्ता रफ़्ता उन की गुलाबी रंगत का हम लुत्फ़ उठाए जा रहे थे। 45. अफ़सुर्दगी सी छाई हुई थी उनके दिल में हमारे ग़म में साथ देने के लिए, हमारे दिल पे हाथ उन्होंने रख दिया हमारे दिल को तसल्ली देने के लिए, तस्कीन-ए-दिल तो हमें क्या मिलती, उल्टा शोला-ए-इश्क और भड़क उठा - यही हसरत है कि हाथ दिल पर यूं ही रखे रखें ताउम्र साथ देने के लिए। ****************************************************************************** 46. अनगिनत रातें उनके बग़ैर काटकर दिल नें कहा, "अब हम और सब्र ना कर पाएंगे, आज तक जो नहीं आए, आने वाले वक्त में क्या वोह हमारी आस पर उतर पाएंगे, उम्मीद कभी नाउम्मीद नहीं होती है, उम्मीद कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती - हमने फिर सब्र का दामन थाम लिया कि ज़रूर वोह हमारी आस पूरी कर पाएंगे। ****************************************************************************** 47. दूर से मेरी आंखों में चमक देखकर लोग यह समझ जाते हैं कि मेरे रू-ब-रू तुम आए हो, सोते सोते मेरे लबों पर मुस्कुराहट देखकर लोग समझ जाते हैं कि सपने में तुम छाए हो, दिलरुबा की दिलरुबाई मुझ पर हावी हो जाती है तो लोग समझ जाते हैं कि तुम भाए हो, आंखों में तुम हो, ख्वाबों में तुम हो, दिल में तुम हो, मेरे रोम रोम में तुम ही समाए हो। ****************************************************************************** 48. तबीब ने मेरी नब्ज़ पर हाथ रखकर कहा, "तुम्हारा तो मर्ज़ ही ला-इलाज है", हबीब ने मेरे दिल पर हाथ रखकर कहा, "घबरा मत, खुदा बड़ा ही कारसाज़ है", रकीब ने मेरे गले पर हाथ रखकर कहा, "तेरा जीना मरना तो अब मेरे हाथ है" - मैंने हंसकर रकीब से कहा, "वाह, क्या बात है, यही तो मेरा आख़िरी इलाज है"। ****************************************************************************** 49. रस्म-ए-दुनियां को ही अगर निभाना है तो जाओ, और जाकर तुम रस्म-ए-दुनियां ही को निभाओ, और रस्म-ए-दुनियां को छोड़ कर अगर आ सको - तो फिर आ जाओ और रस्म-ए-इश्क को निभाओ। ****************************************************************************** 50. आज वोह कुछ खास ही मूड में थे, मुस्कुरा कर यूं बोले, "आप तो नायाब हो, हर कोई आप की शख़्सियत में उलझ कर रह जाता है, आप तो लाजवाब हो" उनकी बात की तस्दीक करने की खातिर हमने अपने अंदर झांक कर कहा - "बात तो आपकी ठीक ही है पर मेरे हर फ़ल्सफ़े की आप ही तो किताब हो।" 51. तमाम उम्र हर पल हमने तुमसे, फ़क्त तुमसे बेलौज़ मोहब्बत की है, पर तुमने यह क्या किया, हमारे साथ सय्यादों वाली सियासत की है, पर कटवाकर जब हम खुद को कैदी मान चुके थे इश्क के पिंजरे का - कैद से छुटकारा दिला कर तुमने हमें आज़ाद होने की इजाज़त दी है। ****************************************************************************** 52. यह माना हमने कि उनके आते ही ज़ोरों से धड़कने लगता है हमारा दिल, हालात-ए-दिल को समझना लाज़िम है, सुनें तो क्या कहता है हमारा दिल, "कमज़ोरी-ए-दिल को मद्द-ए-नज़र रखो और धड़कन-ए-दिल पर काबू रखो - ऐसा न हो कि हमारे इस मौका-ए-जशनां पर जवाब दे जाए हमारा दिल।" ****************************************************************************** 53. दिल का अल्हड़पन जब भी कभी दिमाग़ की सुचारू सोच के आड़े हो जाता है, तो दिग्गज से दिग्गज खिलाड़ी भी अपने वर्तमान के समक्ष आपा खो जाता है, यह माना कि दुनियावी मामलों में दिमाग़ की सोच को बेहतर समझा जाता है, पर प्यार मोहब्बत के फ़ैसलों में दिल का कहा मानना ही बेहतर हो जाता है। ****************************************************************************** 54. सुरमई सी रंगत लिए हुए क्या पुरनूर और बेमिसाल चेहरा है आपका, आंखें बेचारी चुंधिया कर रह जाती हैं, क्या पुरजलाल चेहरा है आपका, यकीनन आपके चेहरे की चमक या तो माहताबी है या फिर आफ़ताबी - निगाहें वहीं टिककर रह जाती हैं, क्या रौशन जमाल चेहरा है आपका। ****************************************************************************** 55. बज़्म-ए-इल्म-औ-सुखन है यह, चले आओ मेरे दोस्तो, जो कुछ हासिल करके ले जा सको, ले जाओ मेरे दोस्तो, अदब-औ-अदीब की ये बातें फिर कब और कहां मिलेंगी - जितनी भी तुम ले कर जाना चाहो, ले जाओ मेरे दोस्तो। ****************************************************************************** 56. वाइज़ों की एक एक लम्हा बयां की गई इन रंगीं बयानियों पे मत जाओ, शेख़ साहब के किए गए जन्नत दिलाने के इन हसीन वादों पे मत जाओ, रंगीनियां और जन्नती रौनकें ढूंढ रहे हो, मिल जाएंगी ये उनकी आग़ोश में - उनके इंकार में झलक इकरार की भी है, उनकी न नुक्करियों पे मत जाओ। 57. कागज़ के फूल गुलदस्तों में पड़े पड़े ही अपनी खूबसूरती पर इतराते हैं, कौन समझाए इन्हें कि बाज़ारी रंग जिन्हें ओड़कर वोह इतना इतराते हैं, आरज़ी हैं और चार दिन के मौसमी उतार-चढ़ाव में ही फीके पड़ जाते हैं, फूलों की असल पहचान होती है खुशबू से जिसपर असली गुल इतराते हैं। ****************************************************************************** 58. किताब-ए-हयात के पहले चंद वर्कों में तो लिखावट निहायत ही खूबसूरत होती है, ज़िंदगी का सफ़र ज्यूं ज्यूं आगे बढ़ता है तो लिखावट कुछ कम खूबसूरत होती है, शुरुआती वर्कों में होती है बंदे की तकदीर जो कातिब-ए-तकदीर ने लिखी होती है, फिर आती है तफ़सील उसकी तदबीरों की जो अपने हाथों से उसने लिखी होती है। ****************************************************************************** 59. कई औरों को किसी के सजदे में गिरा देख कर मैं भी उसके सजदे में गिर गया, मुझ को उस के सजदे में गिरा देख कर कोई और भी उसके सजदे में गिर गया, इस तरह से हुई इब्तेदा और बन गई एक लंबी फ़ैहरिस्त खुदा के गुनाहगारों की - खुदा तो फ़क्त तू ही है, मुझको माफ़ करना मैं किसी और के सजदे में गिर गया। ****************************************************************************** 60. लिखने वाले नें मेरी ज़िंदगी के सफ़र का निचोड़ खुद ही जमा दिया, और कातिब-ए-तकदीर नें उसे कागज़ पर लिखकर मुझे थमा दिया, उस पर लिखा था, "तदबीरों का बादशाह बन, तकदीर की मत सोच - समझ ले, खुद मंज़िल नें राह-ए-मंज़िल को तेरी तकदीर बना दिया"। ****************************************************************************** 61. कल रास्ते में चलते चलते मुझे वोह मिल गई सारी दुनियां को जिसकी तलाश है, मैंने पूछा कि कौन हो तुम और इन अंजान रास्तों पर तुम को किसकी तलाश है, कहने लगी, "बहुत से लोग यहां ज़िंदा होने के बावजूद मुर्दा जिस्म लिए फिरते हैं - मैं ज़िंदगी हूं, मैं ऐसे ही लोगों में जान फूंकने आई हूं, मुझको उन्हीं की तलाश है"। ****************************************************************************** 62. काम के सिलसिले में अमूमन होता है मेरा आना जाना इसी रास्ते से, रास्ते नें भी जैसे तस्लीम कर लिया है मेरा आना जाना इसी रास्ते से, जब भी इस राह में तुम मेरे हमराह होते हो, सफ़र जल्दी कट जाता है - रास्ते को भी जैसे अच्छा लगता है तेरा मेरा आना जाना इसी रास्ते से। 63. इश्क अगर गुनाह है तो इस गुनाह में तुम और हम दोनों शामिल हुए, तो फिर ये कर्ज़-ए-वाज्बात-ए-इश्क अकेले हम पर ही क्यों नाज़िल हुए, ज़ाहिरी तौर पे इस गुनाह में तुम और हम दोनों बराबर के शरीक थे - फिर वोह कर्ज़ तुम पे भी नाज़िल क्यों ना हुए जो कि हम पे नाज़िल हुए। ****************************************************************************** 64. आपका यह कहना है कि हम बेवफ़ा हैं और बेवफ़ाई करते हैं, आपका यह कहना बिल्कुल सही है कि हम बेवफ़ाई करते हैं, लेकिन यह कहना सरासर इल्ज़ाम है हमपर कि हम बेवफ़ा हैं - हम बेवफ़ा नहीं हैं, हम तो पूरी वफ़ा के साथ बेवफ़ाई करते हैं। ****************************************************************************** 65. वोह भी वक्त था कि हम उनको ख़त लिखा करते थे उनके जवाब के लिए, और हफ़्ता दो हफ़्ता हम इंतेज़ार भी किया करते थे उनके जवाब के लिए, आज के तकनीकी युग जैसी शिद्दत कभी भी ना थी उनके जवाब के लिए, पांच मिनट बाद ही हम नाराज़गी ज़ाहिर कर देते हैं उनके जवाब के लिए। ****************************************************************************** 66. सजाया गया गुलों को जब गुंचों में तो गुंचे मुस्कुरा उठे, मुस्कुराता देख गुंचों को उनमें सजे गुल भी मुस्कुरा उठे, ग़ुमां था गुंचों को अपनी खूबसूरती पर पर नादां थे वोह - उनकी खूबसूरती तो गुलों से है जो गुंचों में मुस्कुरा उठे। ****************************************************************************** 67. बहुत करते थे दावा पारसाई का, पारसाई उनकी कहां खो गई, हया की मूरत हव्वा की बेटी, सिर से रिदा उसकी कहां खो गई, इल्ज़ाम औरों की ज़्यादती का उस पर धरें भी तो कैसे धरें - नाज़ों से पला आदम का बेटा, आंखों से हया उसकी कहां खो गई। ****************************************************************************** 68. ज़ख़्मों में जब नमक मिलता है तो ज़ख्म नासूर बन जाते हैं, इसीलिए तो लोग ज़ख़्मों पर नमक छिड़ककर लुत्फ़ उठाते हैं, मग़र आंसुओं में मिलकर तो नमक की तासीर बदल जाती है - इसीलिए हम अपने ज़ख्मों को आंसुओं से धोकर सुकून पाते हैं। 69. रोज़ आ जाते हो तुम, मांगने मुझसे मेरी खुशियों का हिसाब, कभी तो आ जाओ तुम, मांगने मुझसे मेरी ग़मियों का हिसाब, तुम क्या जानो रातों को जाग जागकर क्यों तारे गिनता हूं - जाने कब आ जाओ तुम, मांगने मुझसे मेरी तन्हाइयों का हिसाब। ****************************************************************************** 70. यह क्या कि एक ही लम्हे में तर्क-ए-ताल्लुक आपने हमसे कर दिया, एक झटका दिया और उलझे हुए दामन को अलग कांटों से कर दिया, नताइज दिल के टूटने का अन्देशा और दामन के चाक होने की सूरत - इस कदर भी बेरुखी क्या किनारा आपने दोनों ही सूरतों से कर दिया। ****************************************************************************** 71. सितम यूं न ढाया करो कि छलक जाएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से, लेकिन जब कभी बेसाख़्ता छलक आएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से, खुश ना हुआ करो, कमज़ोरी के ये वक्ती लम्हे चुटकी बजाते गुज़र जाते हैं - वापसी का रुख ले लेते हैं, ना टपक पाएं आंसु मेरी आंखों की दहलीज से। ****************************************************************************** 72. हर बार इक नया ज़ख़्म देते हो और साथ ही ज़ब्त रखने को कहते हो, ज़ख़्मों को तो कुरेदते रहते हो लेकिन लबों को सिए रखने को कहते हो, वाह, पैमाना-ए-हद्द-ए-बर्दाश्त को भी हमारे ही हाथों में थमा दिया आपने - धीरे धीरे दर्द को बढ़ाते हो और पैमाने पर नज़र रख्नने को कहते हो। ****************************************************************************** 73. तू नहीं आती तो ज़हन में याद तेरी उभर आती है, और यादों के झरोखों से परछाई तेरी उभर आती है, जब बहले से नहीं बहलता दिल परछाई एवं याद से - तो याद और परछाई से तस्वीर तेरी उभर आती है। ****************************************************************************** 74. हमारी मैनोशी पे तानाज़न हैं दावेदार ये पारसाई के, मुफ़्त में हमें बदनाम करते हैं दावेदार ये पारसाई के, पर्दा उठाओ, इनकी हकीकत दिखाओ, हम भी तो देखें - खुद किस हद्द तक मुक्कदस हैं दावेदार ये पारसाई के। 75. हम आ गये हैं हंगामा-ए-शोर-औ-गुल लेकर, फूल हर सू अब खिले रहेंगे, बड़ो आगे और फैलाओ बाहें और मिल जाओ गले, दिल ऐसे ही मिले रहेंगे, हम तो वोह हैं जो सन्नाटों के सीने को भी चीर कर मारते हैं किलकारियां - हम भी तो आज देखें कि यह खामोश लब आखिरकार कब तक सिले रहेंगे। ****************************************************************************** 76. तेरी इन मद मस्त आंखों की झील में मैं डूब डूब जाता हूं, हिचकोले खा कर उभरता हूं और फिर मैं डूब डूब जाता हूं, यूं तो इस झील से बाहर निकलना कुछ मुश्किल काम नहीं - डूबना इस में अच्छा लगता है मुझे, मैं डूब डूब जाता हूं। ****************************************************************************** 77. अना की राह में कहीं भी कोई दोराहा नहीं नज़र आता है, अना का यह सफ़र तो हमें बस एक ही रास्ता दिखाता है, अना अपनी को इस तरह से ढीला छोड़ देना सही नहीं है - अना का वाहिद रास्ता सीधा जुदाई की तरफ़ ले जाता है। ****************************************************************************** 78. तूफ़ान-ए-हवादिस से हमको डराते क्यों हो, हम नहीं हैं इनसे डरने वाले, ऐसे ऐसे तूफ़ानों से हमको डराते क्यों हो, यह तो दिलों में हैं हमने पाले, हम तो वोह हैं तूफ़ान जिनके बिछौने होते हैं और घटाएं होती हैं ओढ़नी - तुम तो जाओ अपनी फ़िक्र करो, ऐसे तूफ़ानों से हम नहीं हैं टलने वाले। ****************************************************************************** 79. तमाम खलकत की तख़लीक के बाद उसको बसाना भी तो लाज़िम था, लिहाज़ा खुदा के लिए सारी कायनात ही को बनाना भी तो लाज़िम था, मसला वर्जित फल का उठाना तो खुदा का एक वाजिब सा तरीका था - खुल्द से आदम को निकालने के लिए कोई बहाना भी तो लाज़िम था। ****************************************************************************** 80. तमाम उम्र खरीद फ़रोख्त की परिंदों की, बदले में बददुआ ही लिखी थी, सैय्याद बहुत खुश था छोड़कर परिंदे को, शायद कुछ दुआ ही लिखी थी, लेकिन बिल्ली नें धर दबोचा परिंदे को, ऐसे ही लिखा था उसके लेखे में - सवाब तो उसके नसीब में था नहीं, लेखे में उसके बददुआ ही लिखी थी। 81. रोबिनसन करूसो की तरह ज़िंदगी अकेले ही नहीं जिए जाते हैं हम, हम तो फ़र्द हैं माशरे के, हर एक फ़र्द के साथ साथ निभाते हैं हम, कमज़र्फ़ इंसान हम नहीं हैं, मय पी कर तो होश नहीं गंवाते हैं हम, मय तो मातहती में रहती है हमारी, पी कर तो संभल जाते हैं हम| ****************************************************************************** 82. एक दिन खुरपी ले कर मैं ज़मीन को खुरचने में लगा था, मेरे एक दोस्त नें पूछा कि यह मैं क्या करने में लगा था, मैंने कहा "हमारे चारित्रिक मूल्य यहां पर ही कहीं दफ़न हैं - उनको पुनर्जीवन देने को मैं ज़मीन को खुरचने में लगा था"। ****************************************************************************** 83. पांव छलनी हुए कांटों से, दुख उनका तो कोई जानता ही नहीं, मुश्किलात राह-ए-आशिकी की भी तो कोई पहचानता ही नहीं, लेकिन फिर भी एक लम्हे को भी रूह अपनी नहीं ज़ख्मी हुई - फ़राख़दिली हमारी भी आप देखिए, दिल है के मानता ही नहीं। ****************************************************************************** 84. लोग जब हमारी बात सुनते नहीं तो धमाका करना लाज़मी हो जाता है, लोग जब हमारी बात समझते नहीं हैं तो समझाना लाज़मी हो जाता है, माना कि मजमा लगाना ना हमारा शौक है और ना आदत में शुमार है - लोग जब समझकर नासमझ बनें तो मजमा लगाना लाज़मी हो जाता है। ****************************************************************************** 85. बेपर्दा इस तरह आप क्यों फिरा करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में, आग लगाने का आप क्यों सिला करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में, धुआं सा इन बर्फ़ की चट्टानों से अमूमन जो उठता नज़र आता है - उसे असली शक्ल आप क्यों दिया करते हो इन बर्फ़ की चट्टानों में। ****************************************************************************** 86. जिस बात के ज़िक्र पर वोह शरमाकर बल खाए जा रहे थे, उसी बात को हम अपने शोख़ अंदाज़ में दोहराए जा रहे थे, हमारे शोख़ मिजाज़ पर उनका तो शरमाए जाना लाज़मी था - पर हम तो मुस्कुराए जा रहे थे और लुत्फ़ उठाए जा रहे थे।. 87. खुल्द से आदम को निकाल बाहर करना, क्या, उसकी खता थी? एक मोहब्बत भरे दिल को उसका रखना, क्या उसकी खता थी? मोहब्बत एक पाक जज़बा है, उसके लिए सज़ा वाजिब है क्या - मोहब्बत की खातिर हव्वा से फल ले लेना, क्या उसकी खता थी? ****************************************************************************** 88. माज़ी को नज़र अंदाज़ कर के यूं ताल्लुक आप हमसे कता ना कीजिए, कुछ नहीं तो आपसी मिलने जुलने का सिलसिला तसलीम कर लीजिए, आपको मानना होगा आपसे जुदा होके हमारा तो वजूद फ़ना हो जाएगा - हबीब समझकर सही, डूबते के पास तिनके का सहारा तो रहने दीजिए। ****************************************************************************** 89. तमाम उम्र ज़माने भर के सितम सहते रहे हम, खामोशियों को ही मुकद्दर बनाकर रहते रहे हम, वक्त-ए-शाम की हम को खबर ही नहीं होने पाई - ना जाने कैसे कतरा कतरा करके बहते रहे हम। ****************************************************************************** 90. दोस्तो, फूल हूं एक खिलता हुआ सा मैं, जहां देखो खुशी को बिखेरता हुआ सा मैं, मुश्किलें लाख पड़ें, कोई ग़म नहीं है मुझे - कांटों के दर्मियान भी हंसता हुआ सा मैं। ****************************************************************************** 91. तमाम उम्र जिस के साथ हम साथ निभाने की बात करते रहे, तमाम उम्र जिस के साथ हम हाथ मिलाने की बात करते रहे, जिसको हम हमेशा ही अपना दस्त-ए-रास्त तसलीम करते रहे - वोही हमारे साथ दुश्मनी की बिसात जमाने की बात करते रहे। ****************************************************************************** 92. अपने खज़ीना-ए-शेर-औ-नग़मा को आज हम बाज़ार की चौपाल में लिए बैठे हैं, इंतज़ार-ए-खरीददार की कोई हद्द मुअय्यन नहीं, हम सुबह से शाम किए बैठे हैं, हमारी दौलत की क्या कीमत लगाए खरीददार, इससे नहीं कोई सरोकार हमको - लेने वाला आल्लाह ज़र्फ़ होना चाहिए, हम मुफ़्त में देने की भी हुंकार दिए बैठे हैं। 93. यकीनन खुदा अपनी खुदाई से ही मिट्टी से आदमी को बना देता है, पर कुछ तो खास शय और भी है जो खुदा मिट्टी में मिला देता है, तासीर इस करामाती मिलावट की तो विरला ही कोई समझ पाता है - पर जो समझ जाता है खुद को आदमी से इंसान वोही बना लेता है। ****************************************************************************** 94. दिल की लगी पे हमने उनके हुज़ूर में अपनी दरख्वास्त पेश कर दी, सुन कर हमारी अर्ज़-ए-तमन्ना उन्हों ने चुप्पी सी अख्तियार कर ली, देखकर उनकी खामोशी मायूस तो हुआ दिल पर शायद हमारी अर्ज़ी - ज़ेर-ए-सोच होगी उनके, यही सोचकर हमने एक उम्मीद घर कर ली। ****************************************************************************** 95. हम जलाते हैं चराग़ अपने घरों की तारीकी मिटाने के लिए, आप करते हो चराग़ां अपने घरों को जशन मनाने के लिए, खफ़ा ना होना मेरे इस तरह के बेखौफ़ अंदाज़-ए-बयां पर – करते हैं रौशन चराग़ हम तो जहां में रौशनी फैलाने के लिए। ****************************************************************************** 96. दुशमन अगर दुशमनी निभाने पे उतर आए तो समझा दो ना उसे, आप तो दिल में सिर्फ़ दोस्ती का जज़्बा रखते हो, बता दो ना उसे, दुशमनी के बदले दुशमनी तो किसी मज़हब में भी जायज़ नहीं है - आप खुद दोस्ती की पहल करके, सबक दोस्ती का पढ़ा दो ना उसे। ****************************************************************************** 97. दफ़अतन राब्ते इस तरह से टूटे कि लगा जुदा हो जाएंगे हम तुम, पर हमें था यह यकीन कि ताउम्र अहद-ए-वफ़ा निभाएंगे हम तुम, टूटे तार भी जुड़ गए, फ़ासले भी मिट गए, रास्ते सब आसां हो गए - अब कोई रंज नहीं, मलाल नहीं, मंज़िलों तक पहुंच पाएंगे हम तुम। ****************************************************************************** 98. नुमाइश फूलों की लगी हुई थी, चारों ओर फूल मुस्कुरा रहे थे, खिलखिला रहे थे, नुमाइश देखने हमारे वोह भी आ गए, फूल बेचारे अब यहां वहां मुंह छुपा रहे थे, खूबसूरती फीकी पढ़ गई थी फूलों की जैसे कोहरे की चादर ने ढक लिया हो उसे - फूलों के ऊपर तो घनी उदासी सी छाई हुई थी पर हमारे वोह अब मुस्कुरा रहे थे। 99. कितने श्वास लिखवा के लाए थे हम और कितने मनफ़ी हो गए अपने खाते में, यह हिसाब रखना भी लाज़मी है कि कितने श्वास बाकी रह गए हमारे खाते में, धार्मिक दृष्टिकोण से भी देखें तो कर्मों का लेखा जोखा रखना भी लाज़मी होता है - इसी पर निर्भर होता है जमा, घटा के बाद की बकाया राशि का कार्मिक खाते में। ****************************************************************************** 100. एक शख्स पर साइल ने निगाह कुछ पाने की उम्मीद से डाली, बदले में उस शख्स ने हिकारत भरी एक निगाह साइल पे डाली, मग़र शर्मिंदगी का एहसास उस मग़रूर शख्स को तो ले ही डूबा - साइल ने जब उस शख्स को लम्बी उम्र जीने की दुआ दे डाली। ****************************************************************************** 101. हौसला वोह पैदा कर अपने जिगर में कि चट्टान भी फिसल जाए, असर वोह पैदा कर तू आह-औ-बुका में कि पत्थर भी पिघल जाए, दुशमनी ना कर किसी से, कोई दुशमनी करे तो सिखा दे उसे सबक - दोस्ती का ताकि दुशमनी का इरादा उसके ज़हन से ही निकल जाए। ****************************************************************************** 102. रेत की तरह यह ज़िंदगी हाथों से मुख मोड़ती हुई निकल जाती है, रेत के छोटे छोटे कण ज़िंदगी हाथों में छोड़ती हुई निकल जाती है, रेत के छोटे छोटे कण कुछ भी नहीं हैं, कुछ यादें हैं, कुछ सपने हैं - ये यादें और सपने, अतीत के पन्नों में जोड़ती हुई निकल जाती है। ****************************************************************************** 103. दिल बेचारा तो बेज़ुबां है, बेचारा हालात-ए-हाज़िरा भी न कह पाए है, बात अपनी कहने को बेचारा ज़ुबान पर मुनहस्सर होकर रह जाए है, असहाय इतना भी न हो जाए कोई कि बात भी अपनी न कह पाए है, लेकिन ज़ुबान जब साथ देती है तो दिल का ग़ुबार सारा बह जाए है। ****************************************************************************** 104. यह सोहबत का ही तो असर है जो कांटे भी गुलों का सा मिजाज़ रखते हैं, यह सोहबत का ही तो असर है जो हम भी शायरों का सा मिजाज़ रखते हैं, गुलों की सोहबत नसीब नहीं हुई जो आप भी कांटों का सा मिजाज़ रखते हैं, हबीबों की सोहबत नसीब नहीं हुई जो आप राकीबों का सा मिजाज़ रखते हैं। 105. लोग खामोशी हमारी पर मुख्तलिफ़ किस्म के सवाल उठाते हैं, और शोख़ी हमारी भी देखिए कि हम मुस्कुरा कर टाल जाते हैं, हमारी मानीखेज खामोशी पर लोग क्या क्या अटकलें लगाते हैं - जिसको जो भी समझ आता है वैसे ही अफ़साने ढाल लाते हैं। ****************************************************************************** 106. मैखाने में जब कभी भी आप आ जाते हो तो शराब बेअसर सी होने लगती है, मैखाने में साकी के हाथों से पैमाने छूटने लगते हैं, शराब बिखरने लगती है, मैखाने में जब कभी हम आ जाते हैं तो शराब आबे-हयात सी लगने लगती है, मैखाने में बेवज़ू आने और बावज़ू आने वाली बात समझ में आने लगती है। ****************************************************************************** 107. मिटा दो अपने दिल से कदूरतें सारी, उतारकर फैंक डालो अना की ओढ़नी, समेट लो अपने दिल में सारे जहां का प्यार, पहन लो भाईचारे की ओढ़नी, बेनकाब कर देगी दुनियां तुम्हें अगर पहने रहोगे तुम यह अना की ओढ़नी, समेटे रहेगी आबरू तुम्हारी अगर पहने रहोगे तुम यह भाईचारे की ओढ़नी। ****************************************************************************** 108. बिछाकर कांटों को हमारी राहों में अब वोह हो रहे हैं खुद भी पशेमां, पूछते फिर रहे हैं हर किसी से हमारी कांटों भरी मुसाफ़त की दास्तां, मेरे किस्सा-ए-मुसाफ़त में क्या रखा है, सुनो कांटों की रूदाद-ए-हिज्रां, कांटे तकलीफ़ हमें क्या देते, जुदा होके फूलों से थे वोह खुद ही परेशां। ****************************************************************************** 109. नाम से शदाद थे वोह और खुदा की खुदाई के दावे करते थे, दुनियां में वोह एक नई जन्नत को बसाने के दावे करते थे, नादान थे, ला-इल्म थे वोह, सच ना हुए खुदाई के दावे उनके - फ़ना-औ-बेनाम-ओ-नमूद हो गए जो खुदाई के दावे करते थे। ****************************************************************************** 110. रोज़-ए-जज़ा अल्लाह के इंसाफ़ पर एक वाजिब सा ऐतराज हमने दाखिल कर दिया, खुदा के बही खाते पर एक बहुत ही अहम सवालिया निशां हमने नाज़िल कर दिया, रियाज़ी का हुनर जो अल्लाह नें हमको बख़्शा था, शायद इसी रोज़ काम आना था - हमारी तूल-ए-ज़िन्दगी में रोज़-ए-हिज्रां की गिनती को क्यों उसने शामिल कर दिया। 111. जुदाई के गहरे समुंद्र में डुबो कर मुझे हाल मेरा आप ग़ैरों से पूछते क्यों हो, दर्द के चढ़ते उतरते भंवर में छोड़ कर मुझे हाल मेरे चेहरे का देखते क्यों हो, आप शायद ये सब सिर्फ़ मेरे बर्दाश्त के मादे को परखने के लिए करते होगे - दिल के सुकून के लिए यकीनन नहीं वरना छुप छुप के आंसू बहाते क्यों हो। ****************************************************************************** 112. इश्क, प्रेम, प्यार और मोहब्बत से ही तो दिन-औ-रात है, इश्क में छिपी नम्रता-औ-आजिज़ी अल्लाह की सौगात है, साहिब के दरबार में अना की नहीं, प्रेम प्यार की बात है, इश्क अल्लाह का नाम है और इश्क अल्लाह की ज़ात है। ****************************************************************************** 113. सुबह सुबह सूरज की रौशनी अपने आंचल में लालिमा ले के आती है, दोपहर आते आते यही लालिमा सूरज की सफ़ेद धूप में बदल जाती है, सफ़र के अंतिम पढ़ाव पर यह धूप शाम को फिर लालिमा दे जाती है, यह लालिमा कहीं और नई सुबह की लालिमा के रूप में उभर आती है। ****************************************************************************** 114. रम्ज़-ए-इश्क इस तरह से अयां हो जाए, अच्छा तो ना था, सात तालों में दफ़न भेद यूं बयां हो जाए, अच्छा तो ना था, पोशीदगी को कायम रखने में हमने कोई कसर ना छोड़ी थी - हमारी आंखें ही चुगलखोरी पर उतर आएं, अच्छा तो ना था। ****************************************************************************** 115. बेहतर यही है कि शाकिर हम अपने ही रिज़्क पे रह पाएं, लिहाज़ा ज़रूरी है कि हम हाथ अपनी जेब ही में रखे आएं, बजाए इस के कि अपनी नज़र दूसरों के रिज़्क पर ही रहे - और ऐसा ना हो कि अपने हाथ उन की जेब में चले जाएं। ****************************************************************************** 116. ईश्वर, अल्लाह, नानक और ईसा के नाम हम दोहराते हैं, हमारे ऊपर पढ़ी हुई हर तकलीफ़ से हम निजात पाते हैं, साहिबे जहां की गफ़्फ़ारी में शक नहीं पर उसके नाम को - गिनकर के माला, सिमरनी, तस्बीह एवं कंठी फिराते हैं। 117. जो भी हालात-ए-हाज़िरा हम खुदा की इस कायनात में देख पाते हैं, हकीकतन उनसे हट कर कई वाक्यात ऐसे भी देखने में आ जाते हैं, जो दिमाग़ी सोच से अलग होते हैं और अजूबे-औ-मोजज़े कहलाते हैं, दिमाग़ भले ही इन को ना माने, ये केवल दिल के दायरे में आते हैं। ****************************************************************************** 118. पहले तो आपका मन आपको मृगतृष्णा के भंवर में फंसा देता है, फिर सराबों की राह पे आपको सुंदर सुंदर सपनों में लगा देता है, छोड़ दो अपने मन की ताबेदारी को और चल पड़ो परमार्थी राह पर - वरना तो आपके जीवन को चौरासी के गोरखधंधे में उलझा देता है। ****************************************************************************** 119. कहीं पर आग लगी होने का हो जब इशारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है, दिल की लगी से सुलग रहा हो दिल हमारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है, कुछ धुआं सा कहीं उठता नज़र आए, कहा जाता है वहां आग का होना लाज़मी है - बर्फ़ के कारखानों में आग होती नहीं खुदारा, कुछ धुआं सा वहां भी नज़र आता है। ****************************************************************************** 120. रात मेरी तो गुज़र जाती है तारे गिनते गिनते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए, दिन नहीं कटता लोगों को बर्दाश्त करते करते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए, तलवार तो एक तरफ़ से वार करती है पर ये दुनियां वाले दोतरफ़ा वार करते है - दोधारी तलवार है दुनियां, जीते हैं कटते कटते, रात ढल जाए पर दिन नहीं जाए। ****************************************************************************** 121. यह एक महज़ ख्वाब-औ-खयाल तो है, लोग जिसको जन्नत कहते हैं, महज़ एक ख्वाब-औ-खयाल जो है फिर क्यों इसको जन्नत कहते हैं, भले ही एक ख्वाब-औ-खयाल सही, काश हम यह हकीकत जान पाते - कि यह महज़ ख्वाब-औ-खयाल क्या है, लोग किसको जन्नत कहते हैं? ****************************************************************************** 122. बकौल जनाब कृष्ण बिहारी ’नूर’ साहब, आइना तो झूठ बोलता ही नहीं है, पर जनाब यह आइना सच को भी तो सच के तराज़ू में तोलता ही नहीं है, यकीन नहीं आता तो आइने के रू-ब-रू होकर दिल पे हाथ रखकर देख लो - आइने में आपका अक्स दिल के दरवाजे को बाईं तरफ़ खोलता ही नहीं है। 123. ग़म-ए-इश्क इस कदर बढ़ गए हैं कि नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो चली है ये तन्हाई, ला-इल्म हैं ये चारागर जो यहां वहां ढूंढते फिरते हैं मेरा इलाज-ए-ग़म-ए-तन्हाई, दोनों जहां-औ-खज़ीना-ए-ज़नबील-ए-उमरू को भी हासिल नहीं ये दावा-ए-मसीहाई, मोजज़ाई ज़नबील को भी मयस्सर नहीं है नुस्खा-ए-मोहब्बत की कोई कीमिआई। MEANINGS [नाकाबिल-ए-बर्दाश्त = Beyond Toleration] [चारागर = Doctor] [ला-इल्म = Ignorant] [खज़ीना = Treasure] [ज़नबील = Invisible Sack] [उमरू = Umru Bin Umayya was known to be a trusted ally of Hazrat Ameer Hamza (Prophet's Uncle) and the amazing thing about his zanbeel was that it was said to contain each and everything of the world but still it would never get filled / empty] [दावा-ए-मसीहाई = Surety of treatment] [मोजज़ाई = Christmatic] [नुस्खा-ए-मोहब्बत = Formula of Love] [कीमिआई = Chemistry] ********************************************************************* भगवान और शैतान 124. कल राह में शैतान मिल गया, बोला, "तुम मेरी पार्टी में आ जाओ, सभी ऐश करते हैं, ये भाई लोग और नेता लोग मेरी ही पार्टी से हैं, मेरी छवि को ही सभी कैश करते हैं, भगवान की पार्टी में तुम क्या उम्मीद लेकर जी रहे हो, मृत्युपरांत स्वर्ग की प्राप्ति की - मेरी पार्टी में लोग जीते जी स्वार्गिक आनंद की अनुभूति पाते हैं, सभी ऐश करते हैं"। 125. मैने कहा, "हम दल बदलने वाले नहीं, भगवान की पार्टी में खुश हैं और ऐश करते हैं, हमें भाई लोगों और नेता लोगों से क्या लेना जो लोगों की मजबूरियों को कैश करते हैं, भगवान की पार्टी में हमें स्वार्गिक आनंद की अनुभूति स्थाई तौर पर ही प्राप्त होती है - तुम्हारी पार्टी के लोग तो अस्थाई तौर पर ही आनंद प्राप्त करते हैं और ऐश करते हैं"।
Sunday, August 19, 2007
रुबाइयां
Labels: रुबाइयाँ at 2:22:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment