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Sunday, August 19, 2007

आर्टिकल - ग़ज़ल और नज़म

गज़ल और नज़म

नोट: इस समीक्षा में उदाहरणार्थ हेतु दिए गए सभी शेर / रुबाइयां / कतए / गज़लें / नज़में
मेरे अपने द्वारा लिखे हुए हैं।

शेर: शेर दो पंक्तियों की एक स्वतंत्र कविता होती है। उदाहरणतयः :-

अब तो एक आदत सी बना ली है हमने आंसु पीने की और ग़म खाने की,
अब तो तुम आ भी जाते हो तो फ़िक्र लगा लेता है दिल तुम्हारे जाने की।

   **********

सारे चिराग़ फ़िज़ूल थे मौजूद ना थी जब तेरी रौशनी मेरे जहां में,
सारे चिराग़ फ़िज़ूल हैं जो मौजूद है अब तेरी रौशनी मेरे जहां में।

गज़ल: गज़ल अशआर (शेर का बहुवचन) का एक समूह होता है। गज़ल में अशआर निम्न विधि
से सम्मिलित किए जाते हैं:-

१). गज़ल में हर शेर की दूसरी पंक्ति एक ही शब्द पर समाप्त होती है। यह अंतिम शब्द रदीफ़
कहलाता है।

२). रदीफ़ से पहले के सुरात्मक शब्द एक ही प्रकार के होने चाहिएं। इस प्रकरण को काफ़िया
कहा जाता है।

३). पहले शेर में दोनों पंक्तियों में एक ही रदीफ़ और एक ही जैसा काफ़िया होने चाहिएं। इस शेर
को गज़ल का मतला कहा जाता है। गज़ल में दो मतले भी हो सकते हैं।

४). गज़ल के अंतिम शेर में जिसमें कि शायर अपना तख्खलुस शामिल करता है, उसे गज़ल का
मक्‍ता कहा जाता है।

५). गज़ल में यह आवश्यक नहीं कि सभी अशआर एक ही विशय से संबन्धित हों। वोह एक दूसरे
से अलग विषयों पर भी हो सकते हैं।

६). सभी अशआर एक ही बहर [बहर के ऊपर विस्तारपूर्वक अलग से चर्चा करने की आवश्यकता है।
फ़िलहाल इसको शेर की लंबाई (कुछ अतिरिक्त नियमावली के साथ) मान कर चल सकते हैं]।

इस तरह हर गज़ल चंद अशआर का समूह मात्र है जिस में कम से कम एक मतला, एक मक्ता होना
चाहिए और प्रत्येक शेर एक ही रदीफ़, काफ़िए और एक ही बहर में होने लाज़मी हैं।

गज़ल का एक उदाहरण प्रस्तुत है:-

भूख और प्यास की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है,
हालात की मुश्किल दुखद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

बहुत आसां होता है किसी पर तानाज़न होना, किसी पर तज़करा करना, 
गैरों की खुशहाली से हसद जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

अपनी बढ़तरी स्थापित करने को औरों को एहसास-ए-कमतरी मत दो,
आल्लाह-ज़र्फ़ी की ललक जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

लड़ना हकूक के लिए जायज़ है मग़र जम्हूरियत में यह फ़रमान भी है,
हासिल-ए-हक की तलब जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

हिंदु, मुस्लिम, सिख या ईसाई, किसी भी दीन से हो, क्या फ़र्क पढ़ता है,
भगवान को पाने की तड़प जैसे तुम्हें होती है, वैसे ही औरों को होती है।

कभी कभार शायर गज़ल/रुबाई/शेर बिना रदीफ़ के, काफ़िए पर ही खत्म कर देते हैं। इसे भी
माकूल समझा जाता है। नमूने के तौर पर ऐसी एक रुबाई पेश है:-

सोचा था कि बेगानों के साथ भी जा के हम दिल लगाएंगे,
और इस जग के अन्दर सब लोगों को हम अपना बनाएंगे,
पर लोगों ने वोह खेल खेले कि सपने सारे सपने ही रह गए -
अब सोच में हैं कि कैसे जा के रब्ब को हम मुंह दिखाएंगे।


कभी कभी शायर गज़ल लिखते वक्‍त शेर की जगह रुबाई या कतए का इस्तेमाल कर लेते हैं। जबकि
शेर दो पंक्तियों की स्वतंत्र कविता है, रुबाई या कतआ चार पंक्तियों की स्वतंत्र कविता होती है। रुबाई
में पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में एक ही रदीफ़ काफ़िया होते हैं - तीसरी पंक्ति में रदीफ़ काफ़िए
का नियम लागू नहीं होता, उदाहरण्तयः :-

छप्पड़ एक मुफ़लिस का वक्‍त की बेरहमी से बिजली की नज़र हो गया,
उस के जीवन के एक मात्र सहारे पर खुदा की खुदाई का कहर हो गया,
अच्छाई बुराई किसी न किसी के सवाब और गुनाह पे मुन्हसिर होती है -
किसी का गुनाह तो था यह जो उस ग़रीब के जीवन का ज़हर हो गया।

रुबाई में निर्मित एक गज़ल उदाहरण हेतु प्रस्तुत है:-

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी के लिए उनको औरों को हीन भावना देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

जबकि कतए में चारों पंक्तियों में एक ही रदीफ़ काफ़िए का इस्तेमाल होता है, उदाहरण्तयः :-

उनके आने की खबर नें मुझे कुछ इस तरह तरोताज़ा कर दिया,
कि खुदा नें बिजली के माफ़िक जोश मेरे तन बदन में भर दिया,
गो पांव में जुंबिश ना थी, जोश ने मुझे पांवों पर खड़ा कर दिया,
पाबजोला ही सही उनके इस्तकबाल के लिए घर से मैं चल दिया।

कतए में निर्मित एक गज़ल उदाहरण हेतु प्रस्तुत है:-

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से फूल झरते हैं,
फूल जो उन के मुख से झरते है हम उनको चुनते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ाना नए गुलदस्ते सजते हैं,
इस तरह घर में ही बहार-ए-चमन से हम मिलते हैं।

वोह जब भी हंसते हैं तो उनके मुख से मोती चमकते हैं,
मोतियों की इस चमक से हम झोली भर लिया करते हैं,
इसीलिए तो हमारे घर रोज़ ही नए नए फ़ानूस सजते हैं,
इस तरह घर में ही चांद-औ-सूरज की रौशनी भरते हैं।

ज़िंदगी के चमन में उनकी हंसी के गुल सदैव महकते हैं,
ज़िंदगी की चमक में हम उनकी हंसी की चमक भरते हैं,
बनके जीवन संगिनी मेरे जीवन में वोह कुछ यूं सजते हैं,
सफ़र-ए-हयात में अपने सब कदम साथ ही साथ उठते हैं।

गज़ल के बारे में व्यौरा देने के बाद, हम नज़म की बात करते हैं। यह तो पहले ही स्पष्ट कर दिया
गया है कि गज़ल में सभी अशआर एक ही विषय से जुड़े होने आवश्यक नहीं हैं। लेकिन नज़म में
सभी अशआर एक ही विषय से संबन्धित होते हैं, अतः नज़म में एक शीर्षक (उन्वान) का होना
भी लाज़मी है। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि गज़ल जिसमें सभी अशआर एक ही विषय
से संबन्धित हों और उसमें शीर्षक (उन्वान) भी हो तो उसे नज़म कहा जा सकता है। उस दृष्टि से
देखा जाए तो रुबाई एवं कतआ को भी दो अशआर वाली (चार पंक्तियों की) नज़म भी कहा जा
सकता है।

नज़म का एक उदाहरण प्रस्तुत है:-

तक्मील-ए-ग़ज़ल

लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है -
गुनाह एवम सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें -
दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है,
कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है -
जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।

बहर

शेर, रुबाई, कतआ, गज़ल या नज़म, शायरी की कोई भी पेशकश हो, बहर (मीटर) का उसमें
एक विशेष महत्व होता है। हर शेर, रुबाई, कतआ, गज़ल और नज़म अलग अलग वाक्यों में बंटे
होते हैं जिन्हें शायरी की ज़ुबान में मिसरा कहा जाता है। प्रत्येक मिसरे की खासियत यह होती है कि
वोह एक ही लंबाई और एक विशेष तरतीब में बंधे होते है। बहर का विषय अत्यंत ही कठिन विषय
माना जाता है। लेकिन हम इसकी ज़्यादा विषमताओं में ना जाकर इसका आसान सा अध्ययन करेंगे। 

इस समीक्षा में जितने भी अशआर, रुबाईयां, कतए, गज़लें या नज़में उदाहरण के तौर पर दिए
गए हैं वोह खुद मेरे द्वारा ही लिखे गए हैं।

बहर अमूमन 2०-22 प्रकार की गिनी गई है। लेकिन सहूलियत के लिए हम बहर को मुख्यत: तीन
भाग में बांट सकते हैं - लंबी, मध्यम एवं छोटी, मसलन:-

लंबी

इस रंग बदलती दुनियां में हमने लोगों को रंग बदलते हुए भी देखा है,
इन्हीं लोगों को दुनियां में हमने इंसान से हैवान बनते हुए भी देखा है,
जाती मफ़ाद की खातिर ये लोग कोई भी हद्द पार करने से नहीं चूकते -
ऐसे खुदगर्ज़ी में माहिर लोगों को ज़मीर के सौदे करते हुए भी देखा है।

शोहरत और दौलत के लिए हमने लोगों को ईमान बेचते हुए भी देखा है,
दुनियां में हमने लोगों को मादर-ए-वतन का सौदा करते हुए भी देखा है,
अना के ग़ुलाम होके औरों की इज़्ज़त से खिलवाड़ करना शौक है उनका -
अपनी बढ़तरी को उन्हें औरों को एहसास-ए-कमतरी देते हुए भी देखा है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें दुनियां में नए नए रंग भरते हुए भी देखा है,
अपने हमवतनों के लिए जीने-औ-मरने का जज़बा रखते हुए भी देखा है,
जीवन श्‍वेत श्याम रंग का ही मोहताज नहीं, सुंदर से सुंदर रंग मौजूद हैं -
इसी दुनियां में हमने इंसानों को इंसान से फ़रिश्ता बनते हुए भी देखा है।

मध्यम

खुशियों की दौलत तुम्हें मुबारक और ग़मों का खज़ाना हमारा हो,
मुनाफ़े के सब सौदे तुम्हें नसीब और घाटे का हर सौदा हमारा हो,
तुम्हारी खुशियों में जब भी इज़ाफ़ा हो तो महज़ यही दुआ करना -
खुशियां कुछ हमारे हिस्से में भी आ जाएं और ग़मों में खसारा हो।

मोहब्बत में गिले-शिकवे बेमानी होते हैं, मानीखेज प्यार हमारा हो,
रेले ग़म और खुशी के तो फ़ानी होते है, रवां फ़क्त प्यार हमारा हो,
ज़माने की रंगरलियां हों या दुनियावी दौलत, ये सभी वक्ती होते हैं –
बाद फ़ना इश्क के जो किस्से कहानी होते हैं, वैसा प्यार हमारा हो।

प्रीत बनी रहे सभी से और सबके दिल में कायम प्यार हमारा हो,
वैर और द्वैत ना हो किसी से भी और सबके साथ प्यार हमारा हो,
चार दिन की यह ज़िंदगी सबके साथ प्रेम-औ-प्यार से गुज़र जाए -
हर किसी की मोहब्बत का जो भूखा हो, बस वैसा प्यार हमारा हो।

छोटी

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि स्वप्न तो टूटेगा ही -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम,
जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें -
और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम।

यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम,
तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम,
हम जानते हैं कि तुम तो चले ही जाओगे -
इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम।

यथार्थ और स्वप्न को एक सा पाते हैं हम,
स्वप्न के टूटने के डर से डर जाते हैं हम,
यथार्थ का यथार्थ भी कुछ अलग नहीं है -
तुम से बिछुड़ने के डर से डर जाते हैं हम।

लंबाई बहर का एक अंग है लेकिन बहर का मुख्य अंग है वोह तरतीब जिसमें मिसरों को बांधा जाता है।
हर मिसरा एक खास तरतीब में बंधा होता है। उस तरतीब को अरकान (रुक्न का बहुवचन) कहते हैं।
इस तरतीब को जानने के लिए पहले हमें प्रत्येक अक्षर, स्वर हो या व्यंजन, उसके वज़न की
जानकारी होनी आवश्यक है।  

स्वरों का वज़न निम्न प्रकार से गिना जाता है:-

अ, इ, उ - 1
आ, ई, ऊ - 2
ऐ, औ    - 2
ए, ओ - इनको आवश्यकता अनुसार हम 1 या 2 वज़न दे सकते हैं।

सभी व्यंजनों का वज़न 1 गिना जाता है और जब दो व्यंजनों को जोड़ कर लिया जाता है तो उनका
वज़न 2 हो जाता है।

एक ही शब्द में इस्तेमाल दो व्यंजनों को हम अलग अलग करके उनको 1, 1 वज़न दे सकते हैं।
जैसे कि 'कल' का वज़न 2 है पर हम इसे 'क' और 'ल' अलग अलग करके उनको 1,
1 वज़न दे सकते हैं।  लेकिन दो शब्दों में इस्तेमाल आख़िरी और पहले व्यंजन को जोड़ कर हम
उनको 2 वज़न नहीं दे सकते हैं। जैसे कि 'रात अभी' में 'त' और 'अ' को जोड़कर हम 2
वज़न नहीं दे सकते हैं। 'रात' में 'त' का वज़न 1 और 'अभी' में 'अ' का वज़न 1 ही रहेगा।

किसी भी व्यंजन को उपरोक्त स्वरों की मात्राओं के साथ लिया जाए तो उनका वज़न उन मात्राओं के
मुताबिक ही हो जाता है, यानि कि, 

अ, इ, उ की मात्रा के साथ, जैसे - क, ख, ग; कि, खि, गि; कु, खु ,गु -
इन सब का वज़न 1 गिना जाता है,

आ, ई, ऊ की मात्रा के साथ, जैसे - का, खा, गा; की, खी, गी; कू, खू ,गू -
इन सब का वज़न 2 गिना जाता है,

ऐ, औ की मात्रा के साथ, जैसे - कै, खै, गै; कौ, खौ ,गौ - इन सब का वज़न 2 गिना जाता है,

ए, ओ की मात्रा के साथ, जैसे - के, खे, गे; को, खो ,गो - इन सब का वज़न आवश्यकता
अनुसार 1 या 2 गिना जा सकता है,
   
जब दो व्यंजनों के बीच में आ, ई, ऊ, ए, ओ, ऐ, औ की मात्राओं का या एक व्यंजन से पहले
आ, ई, ऊ, ए, ओ, ऐ, औ का प्रयोग होता है तो उनका वज़न 3 हो जाता है, जैसे लात, रीत,
लूट, खेल, खोट, नैन, कौन, आज, ईख, ऊन, एक, ओट, ऐन, और इत्यादि (जैसा कि पहले
भी कहा गया है कि यदि हम चाहें तो खेल, खोट, एक एवं ओट में हम खे, खो, ए एवं ओ को
ज़रूरत के मुताबिल 1 या 2 का वज़न दे सकते हैं)। 3 के वज़न को हम ज़रूरत के मुताबिक 2,
1 में तबदील कर सकते हैं।   

किसी भी मिसरे को हम सामान्यतय: निम्नलिखित ८ प्रकार की अरकान में बदल सकते हैं:-

फ़-ऊ-लुन - 1-2-2 - मुतकरिब 
फ़ा-इ-लुन - 2-1-2 - खफ़ीफ़ 
म-फ़ा-ई-लुन - 1-2-2-2 - हज़ाज 
मुस-तफ़-इ-लुन - 2-2-1-2 - रजाज़ 
फ़ा-इ-ला-तुन - 2-1-2-2 - रमाल 
मु-त-फ़ा-इ-लुन - 1-1-2-1-2 - कामिल 
म-फ़ा-इ-ल-तुन - 1-2-1-1-2
मफ़-ऊ-लात - 2-2-3


यदि किसी मिसरे में बहर केवल एक ही अरकान के बार बार इस्तेमाल करने से बनती है तो उसे
मुफ़र्रिद बहर कहा जाता है और यदि वोह अलग अलग रुक्न के मिलान से बनती है तो उसे
मुरक्कब बहर कहा जाता है।

किसी भी मिसरे में सभी अरकान का जोड़ कर लिया जाए तो वोह मिसरे का वज़न बन जाता है।
कोशिश यही होनी चाहिए कि हर मिसरे का वज़न बराबर ही आए लेकिन थोड़ा बहुत इधर उधर होने
से विशेष फ़र्क नहीं पड़ता है। उदाहरण के लिए चंद अशार और रुबाइयां प्रस्तुत हैं:-

फ़राख़दिली हमारी से आप हमारे दिल पर काबिज़ हुए,
1-2-1-1-2 1-2-2 1-2-1-1-2 1-2-2-2   2-1-2 (वज़न 31)
काबलियत अपनी से आप हमारी रूह पर काबिज़ हुए।
2-1-2  1-2-2   1-2-1-1-2 2-2-1-2 2-2-1-2 (वज़न 31)

दिल के बहकावे में आ जाते हैं हम तो सराबों को हकीकत मान लेते हैं,
2-1-2-2    1-2-2-2    1-2-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2  1-2-2-2 (वज़न 42)
दिमाग से जब काम ले लेते हैं हम तो सराबों की हकीकत जान लेते हैं।
1-2-1-1-2     2-1-2-2  1-2-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2  1-2-2-2 (वज़न 42)

जैसा कि पहले भी कहा गया है और इस शेर में भी यह कबिल-ए-ग़ौर है कि पहली पंक्ति में ’जाते हैं'
में 'ते' का वज़न 1 लिया गया है जबकि 'लेते हैं' में 'ते' का वज़न 2 लिया गया है।

इसी प्रकार 'ए' का वज़न भी आवश्यकतानुसार 1 या 2 लिया जा सकता है। जैसे 'हुए' शब्द में
ज़रूरत के मुताबिक हम वज़न 1-1 या 1-2 ले सकते हैं, यानि कि 'ए' का वज़न 1 या 2 ले
सकते हैं।

सारे चिराग़ फ़िज़ूल थे मौजूद ना थी जब तेरी रौशनी मेरे जहां में,
2-2-1-2 1-1-2-1-2 2-2-1-2 2-2-1-2  2-1-2-2 2-1-2-2 (वज़न 42)
सारे चिराग़ फ़िज़ूल हैं मौजूद है जो अब तेरी रौशनी मेरे जहां में।
2-2-1-2 1-1-2-1-2 2-2-1-2 1-2-2-2  2-1-2-2 2-1-2-2 (वज़न 42)

मैखाने में जब कभी भी आप आ जाते हो तो शराब बेअसर सी होने लगती है,
2-2-1-2     2-1-2-2   2-1-2-2   1-2-2  1-2-1-1-2 1-2-2  1-2-2-2 (वज़न 45)
मैखाने में साकी के हाथों से पैमाने छूटने लगते हैं, शराब बिखरने लगती है,
2-2-1-2   2-2-1-2   2-1-2-2 2-2-1-2 2-1-2  1-2-1-1-2  1-2-2-2   (वज़न 47)
मैखाने में जब कभी हम आ जाते हैं तो शराब आबे-हयात सी लगने लगती है,
2-2-1-2   2-1-2-2      2-2-1-2  1-1-2-1-2  2-1-2 1-2-2  1-2-2-2  (वज़न 45)
मैखाने में बेवज़ू आने और बावज़ू आने वाली बात समझ में आने लगती है।
2-2-1-2  2-1-2-2  2-2-1-2  1-2-2 1-2-2-2   1-1-2-1-2     1-2-2-2 (वज़न 47)

जैसा कि पहले भी कहा गया है और इस रुबाई में भी यह कबिल-ए-ग़ौर है कि पहली पंक्ति में
'जाते हो तो' में 'तो' का वज़न 2 लिया गया है जबकि तीसरी पंक्ति में 'तो शराब' में 'तो'
का वज़न 1 लिया गया है।

इसी प्रकार 'ओ' का वज़न भी आवश्यकतानुसार 1 या 2 लिया जा सकता है। जैसे 'ओर' शब्द में
ज़रूरत के मुताबिक हम वज़न 1-1 या 2-1 ले सकते हैं, यानि कि 'ओ' का वज़न 1 या 2
ले सकते हैं।

लोग खामोशी हमारी पर मुख्तलिफ़ किस्म के सवाल उठाते हैं,
2-1-2-2   2-1-2-2   2-2-1-2      1-2-1-1-2    1-1-2-1-2 (वज़न 35)
और शोख़ी हमारी भी देखिए कि हम मुस्कुरा कर टाल जाते हैं,
2-1-2-2   1-2-2-2   2-1-2  1-2-2    1-2-2-2   1-2-2-2 (वज़न 38)
हमारी मानीखेज खामोशी पर लोग क्या क्या अटकलें लगाते हैं -
1-2-2-2  2-2-1-2  1-2-2-2   1-1-2-1-2     2-1-2 1-2-2-2 (वज़न 40)
जिसको जो भी समझ आता है वैसे ही अफ़साने ढाल लाते हैं।
2-1-2-2       1-2-2-2     2-2-1-2   2-2-1-2  1-2-2-2 (वज़न 35)

उपरोक्त अशआर, कतआ और रुबाई में 1-2-2, 2-1-2, 2-1-2-2, 2-2-1-2, 1-2-2-2,
1-2-1-1-2 और 1-1-2-1-2 अरकान का इस्तेमाल किया गया है।

क्योंकि सभी अरकान के आख़िर में अमूमन 2 का वज़न आता है, इसलिए किसी मिसरे के आख़िर
में अगर 1 का वज़न आ जाए तो उसे यूं ही छोड़ दिया जाता है, उदाहरणतय:

तेज़ हो जाती हैं धड़कनें दिल की पास जब चले आते हो आप,
2-1-2-2   2-2-1-2  1-2-2-2     1-2-1-1-2   1-2-2      1
रुक के रह जाती हैं धड़कनें दिल की दूर जब चले जाते हो आप।
2-1-2-2     2-2-1-2   1-2-2-2   1-2-1-1-2    1-2-2      1

मैं तो हमसफ़र ही ढूंढता रह गया था, तमाम सफ़र-ए-हयात,
2-1-2-2     1-2-2 1-2-2  1-2-2   1-2-1-1-2 2-1-2    1
हमसफ़र ढूंढने ढूंढने में ही हो गया था तमाम, सफ़र-ए-हयात।
2-1-2-2  1-1-2-1-2 1-2-2  1-2-2  1-2-1-1-2  2-1-2     1

रह गए खड़े सब के सब बावफ़ा अपनी फ़ैरिस्त-ए-वफ़ा के साथ,
2-1-2   1-2-2  1-2-2    1-2-2-2  2-1-2  1-1-2-1-2      1
जबकि इक बेवफ़ा ने निभाई बेवफ़ाई अपनी समूची वफ़ा के साथ।
2-1-2-2     1-2-2  1-2-2-2 1-2-2-2 2-1-2-2  1-2-2-2      1

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