यह खेल तदबीरों का है या कि मेरे हाथों की लकीरें रंग दिखाती हैं, रास्ते सभी सहज लगते हैं और मंज़िलें ठीक सामने नज़र आती हैं, पर कभी कभी मंज़िल तक आके भी हाथ से बाज़ी निकल जाए है - मज़िलों के मील पत्थर तक पहुंचने में मंज़िलें आगे खिसक जाती हैं। हसरतें दिल की हसीन नज़ारे उनकी निगाहों से चुराने को जाती हैं, जैसे ही नज़रें मिलने को होती हैं तो उनकी नज़रें नीची हो जाती हैं, ये उनके अंदाज़-ए-शर्म-औ-हया हैं या ज़ुल्म-औ-सितम की कोई अदा - कुछ भी हो हसरतें अपने दिल की तो दिल में ही दफ़न हो जाती हैं। सवाल किया जब हमने उनसे यही तो लज्जा से वोह नज़रें फेर जाती हैं, सिर को झुका लेती हैं और ज़ुबान अपनी से कुछ भी नहीं बोल पाती हैं, ज़ुबान से चाहे वोह कुछ भी ना कहें पर निगाहें सब साफ़ कह देती हैं - और हम सब समझ जाते हैं, अनकही बातें सब खुद ही बयां हो जाती हैं।
Thursday, March 7, 2013
नज़म - शर्म-औ-हया
Labels: नज़म at 4:49:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - तक्मील-ए-ग़ज़ल
लाखों ग़मों को निचोड़कर जो एक लड़ी में पिरो दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, झूठ-औ-सच को समेटकर एक दिलनशीं अंदाज़ दे दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, चार दिन की ज़िंदगी हमें जो मिलती है, उसे कौन समझा है, कौन उसको जाना है - गुनाह एवं सवाब को मानीखेज अल्फ़ाज़ में ढाल दें तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है। शोख़ नज़रें जो मिल जाती हैं शोख़ नज़रों के संग तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, नज़रों के चार होने के बाद दो दिल मिलते हैं जब तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, पर दिल-ए-बेताब तड़प उठता है जब दर्द से तो बेनूर हो जाती हैं नूर से भरी आंखें - दिल और आंखों में जब इस कदर तालमेल होता है तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है। आंखों से टपके मोती जब रुख्सार पर आ जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, बिना टपके यही मोती जब कल्ब में पहुंच जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है, कल्ब में पहुंचकर ये मोती अंगारे बन जाते हैं तो दिल बेचारा तो बिखर जाता है - जज़्बात अल्फ़ाज़ बनकर कागज़ पे उतर जाते हैं तो तक्मील-ए-ग़ज़ल होती है।
Labels: नज़म at 4:45:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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