मेरे साथ जो हादसा हो गया, उससे देश की जनता के आक्रोश का तो कोई अंत ना था, मैं तो स्वयं ही दुःखी थी पर जनता को पीड़ित देख कर मेरी पीड़ा का भी अंत ना था। जनता की मुजरिमों के लिए मृत्युदंड की मांग तो जायज़ थी पर जनता का यह फैसला, देश के हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए एक गंभीर समस्या से कम ना था। हालांकि आक्रोश की तो उनमें भी कमी न थी पर मौजूदा कानून में उनके हाथ बंधे थे, क्योंकि मौजूदा कानून में बलात्कार के जुर्म के लिए मृत्युदंड का कोई प्रावधान ना था। उनके बंधे हाथ देख मुझे क्रोध भी आ रहा था पर उनके हाल पर रहम भी आ रहा था, लेकिन अपराधियों को वांछित सज़ा ना मिल पाए यह भी मेरे मन को गवारा ना था। हालांकि मैंने अपने भाई से स्पष्ट कहा था कि मैं मरना नहीं चाहती, जीना चाहती हूं, पर बहुत ही सोच समझकर मैंने एक फैसला लिया जो कि मेरे लिए आसान ना था। मैंने रब्ब से अपने लिए मौत मांग ली और रब्ब नें मेरी मंशा समझकर मान भी ली, अब हुकुमुरानों, कानूनदानों और मुंसिफ़ों के लिए इंसाफ़ करना कोई मसला ही ना था। कारण यह कि अब तक वोह बलात्कार को ही मृत्युदंड के तराज़ू में तोलते आ रहे थे, मेरी मृत्यु से आरोपी क़त्ल के मुजरिम थे, अब उन्हें मृत्युदंड देना मुश्किल ना था।
Monday, January 28, 2013
कविता - कारण दामिनी की मृत्यु का
Labels: कविता at 1:49:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva
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