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Wednesday, September 8, 2010

कविता - हालात-ए-हाज़िरा

हालात-ए-हाज़िरा से मुझे बस एक यही शिकायत रही कि हमने क्या पाया,
बहके बहके से सोच में हैं हम कि जो बच गया है, यहीं ये सब रह जाएंगे।

कहने को बहुत कुछ था मन में पर हम किसी से भी कुछ नहीं कह सके,
रफ़्ता रफ़्ता सब कुछ किसी न किसी से तो बातें हम ये सब कह जाएंगे।

बहुत सारे सपने संजोए हुए थे मन में पर सब कुछ मन में ही रह गया,
पलक पलक उम्मीदें थी पर सोचा ना था हवाई किले ये सब ढह जाएंगे। 

रौशनी सूरज की तो मेरे साथ ही है और मेरी तलाश चारों तरफ़ जारी है,
फ़लक फ़लक जैसी ऊंचाइयां लिए हुए हूं, अरमान मेरे सब महक जाएंगे।

नज़म - हाथों की लकीरें

मेरे हाथों की लकीरें जब एक मुअय्य्न मोड़ पर जाकर खत्म हो जाती हैं,
तो दिल में यह सवाल उठता है क्यों ये वहां पर जाकर खत्म हो जाती हैं।
    
यह देख कंवल दिल के खिल उठते हैं वो वहां जा के खत्म नहीं होती हैं,
बल्कि तुम्हारे हाथों में छपी लकीरों में वहां पर जाकर जज़्ब हो जाती हैं।

यह हम दोनों आज जो साथ साथ हैं यह केवल लकीरों का ही तो खेल है,
ज़िंदगी में मिलन या जुदाई, ये बातें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

कल क्या होगा, क्यों होगा, कैसे होगा, है कोई जिस को यह सब खबर है,
ज़िंदगी में सब ज़र्ब-औ-तक्सीम इन्हीं लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

दिल में उठते वलवले कहते हैं कि मैं ज़माने को फ़तेहयाब करके दिखाऊंगा,
पर ज़िंदगी की दौड़ में सभी तदबीरें लकीरों पर जाकर खत्म हो जाती हैं।

नज़म - यह बात मैं हर बार कहता हूं

बेतक्कलुफ़ होकर आप हमारे घर पे आओ, मैं खुश आमदीद कहता हूं,
तक्कलुफ़ को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं। 

सादगी तो आपकी कुदरत है खुदा की तो आराइश की क्या ज़रूरत है,
आराइशों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

हया से बढ़कर अदा और क्या हो सकती है, कोई यह बताए मुझे,
अदाओं को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

कहावत मशहूर है नहीं मोहताज ज़ेवर का जिसे खूबी खुदा ने दी,
सजावट को दरकिनार कर के आओ, यह मैं बात हर बार कहता हूं।

वादा नहीं करो हमसे मुलाकात का, बस चले आओ हमसे मिलने,
वादों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।

दिल में बसे हुए हो आप हमारे जन्म जन्मांतर से, युग युगांतर से,
युगों को दरकिनार कर के आओ, यह बात मैं हर बार कहता हूं।