ज़िंदगी में जब भी तारीकियां आती हैं आपके रुख-ए-रौशन से हमें सुकून मिलता है, ज़िंदगी में जब भी तन्हाई खाती है आपकी रूह-ए-रौनक से हमें सुकून मिलता है। आपकी शोखियां-औ-तब्बसुम तो हमेशा ही अहम रहे हैं हमारे दिल को बहलाने में, आ जाओ, तबीयत अफ़सुर्दा है, आपकी सुर्ख़ी-ए-रुखसार से हमें सुकून मिलता है। आपकी तुनकमिजाज़ियों पर तो हम हमेशा से ही जी जान से निसार होते आए हैं, आ जाओ, दिल हमारा मुज़तरिब है, आपकी अठखेलियों से हमें सुकून मिलता है। आपकी बेबाकी-ए-निगाह-ए-मस्त तो हमेशा से ही हमारी तस्कीन का बाइस रही हैं, आ जाओ, तबीयत बेगाना-ए-अलम है, आपकी बेबाकियों से हमें सुकून मिलता है। आपको तो महारथ हासिल है अपने बदन की महक से हमारे चमन को महकाने की, आ जाओ, हालात-ए-हाज़िरा नाखुशगवार हैं, आपकी खुशबू से हमें सुकून मिलता है।
Monday, April 11, 2011
नज़म - सुकून
Labels: नज़म at 3:18:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
नज़म - ग़रीब
मैंने ग़रीब के घर में कभी दीवाली का जशन होते हुए नहीं देखा, त्योहार कोई भी हो ग़रीब का बच्चा भर पेट सोते हुए नहीं देखा। कहर बर्क का भी महज़ ग़रीब के आशियाने पर ही बरपा होता है, मैंने बर्क को कभी भी कोई पक्का मकान जलाते हुए नहीं देखा। रुआब घटा का भी फ़क्त ग़रीब के छप्पड़ पर ही नाज़िल होता है, मैंने घटा को कभी भी कोई पक्का मकान बहाते हुए नहीं देखा। फ़रिश्ते उतरते हैं जब जन्नत से तो पूरा लश्कर साथ ही होता है, मैंने किसी फ़रिश्ते को किसी ग़रीब के घर में आते हुए नहीं देखा। खुशी के सब हसीन लम्हे फ़क्त अमीर के खाते में ही लिखे होते हैं, खुशी का खुशगवार झोंका मैंने ग़रीब के घर आते हुए नहीं देखा। खुशी मिलती है ग़रीब को तो फ़क्त पल दो पल का साथ होता है, ग़म जो सुबह आता है तो मैने उसे शाम को जाते हुए नहीं देखा। मुफ़लिसी को भी खुदा की रज़ा मानकर वोह उसमें शाकिर होता है, मैंने कभी किसी मुफ़लिस को किसी को बददुआ देते हुए नहीं देखा।
Labels: नज़म at 2:29:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Subscribe to:
Posts (Atom)