किसी भाई लोगों का वोह भाई है या फिर किसी नेता का जमाई है, पर फ़र्क क्या पड़ता है इस से, दहशतगर्दों की कोई जात नहीं होती। बस्तियां जलाना इनका पेशा, भाई को भाई से लड़ाना फ़ितरत इनकी, दहशतगर्दी इनके मज़हब, अलावा इसके इनकी कोई औकात नहीं होती। खूंरेज़ी जारी तो है इनकी लेकिन कब तक, कोई तो इंतेहा मुकरर होगी, तश्शदुद-औ-शोलानवाई शोबा इनका, जिसके दिन और रात नहीं होती। पर जब नेस्तनाबूद हो जाएंगे तो दो गज़ ज़मीन भी इनको नसीब ना होगी, गुनाह जो हद्द से गुज़र जाते हैं तो इनके नताइज से निजात नहीं होती। भुला दोगे जो दिलों से मोहब्बत के निसाब तो पाओगे क्या रोज़-ए-जज़ा, प्यार, मोहब्बत, इमान और वफ़ा से बढ़ कर कोई और सौगात नहीं होती।
Monday, January 10, 2011
नज़म - काला हाशिया
Labels: नजम at 11:30:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Wednesday, January 5, 2011
नज़म - तलख़ ज़ुबानी
हमारी ज़ुबान-ए-तलख़ को आप ऐसे हिकारत की नज़र से मत देखो, जनाब-ए-वाला, ज़माने की तल्ख़ी-ए-तश्शदुद-औ-खूंरेज़ी को भी देखो। गुस्सा हालात पर जब भी कभी आता है मुझे तो पी जाता हूं उसे मैं, मेरे चेहरे की बदलती रंगत पर ना जाओ, दिल के मलाल को भी देखो। लोग तो अमूमन अच्छे होते हैं पर गर्दिश-ए-दौरां उनको मार देती है, उनके हस्बा-ए-हाल को दरकिनार करके उम्र-ए-गुजश्तां को भी देखो। अख़्लाक, जज़्बात और खुलूस फ़क्त खोखले अल्फ़ाज़ बनके रह गए हैं, सिर्फ़ एक ही मय्यार अब रह गया है ज़माने में "रुतबा देखो, जेब देखो"। कायम ज़माने की तल्खियों का इसी तरह कयाम रहेगा दौर-ए-खिर्द में, तो मेरी तलख़ ज़ुबानी को तो आप महज़ हस्बा-ए-मामूल की मानिंद देखो।
Labels: नज़म at 8:50:00 AM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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