Tuesday, May 27, 2008
Thursday, May 15, 2008
Friday, May 9, 2008
कविता - डिनर एक ग़रीब का
जाने कैसे आज एक अमीर व्यक्ति ने सोए हुए अपने ज़मीर को जगाया, एक अत्यंत ही ग़रीब व्यक्ति को अपने घर पर उस ने डिनर पर बुलाया, स्वयं अपने हाथों से अमीर व्यक्ति ने ग़रीब व्यक्ति का हाथ मुंह धुलवाया, और एक बहुत बड़े से डाइनिंग टेबल पर अति प्रेम से उस को बिठाया। छ्त्तीस प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों से उसने अपने दस्तरखान को सजाया, उस सजे सजाए दस्तरखान को देखकर उस ग़रीब का मन तो भर्माया, पर रोज़ की आदत के अनुसार उसने रोटी के साथ एक प्याज़ को उठाया, हर्ष से अत्यंत ही उल्लासित होकर उसने उस डिनर का आनंद उठाया। भोजन के उपरांत प्रसन्न हो ग़रीब व्यक्ति ने उसे अपनी दुआओं से हर्षाया, ग़रीब व्यक्ति की भावभीनि मुद्रा देखकर अमीर व्यक्ति का मन तो भर आया, ग़रीब व्यक्ति को अति संतुष्ट पाकर उस में उसको शाह-ए-जहां नज़र आया, उस ग़रीब के सम्मुख उसने स्वयं को सारी दुनियां में सबसे तुच्छ पाया।
Labels: कविता at 1:01:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Subscribe to:
Posts (Atom)