स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम, तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम, जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें - और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम। स्वप्न में जब भी तुम्हें मिलते हैं हम, तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम, हम जानते हैं कि स्वप्न तो टूटेगा ही - इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम। यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम, तो मुस्कुराते हैं हम, खुश होते हैं हम, जी चाहता है सिलसिले ऐसे ही जारी रहें - और तुम्हें इसी तरह निहारते रहें हम। यथार्थ में भी जब तुम्हें मिलते हैं हम, तो दुखी होते हैं, उदास हो जाते हैं हम, हम जानते हैं कि तुम तो चले ही जाओगे - इसी आशंका से विचलित हो जाते हैं हम। यथार्थ और स्वप्न को एक सा पाते हैं हम, स्वप्न के टूटने के डर से डर जाते हैं हम, यथार्थ का यथार्थ भी कुछ अलग नहीं है - तुम से बिछुड़ने के डर से डर जाते हैं हम।
Sunday, January 22, 2012
नज़म - स्वप्न और यथार्थ
Labels: नज़म at 5:24:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
Subscribe to:
Posts (Atom)