शोख़-औ-रंगीन पहरन उनको मुबारक, चाक-ए-गरेबां अपना नसीबा, जहां की रौनकें उनको मुबारक, तीरगी-ए-शब-ए-हिज्रां अपना नसीबा। गुंचा-ए-गुलों की उनको भरमार, अपने हिस्से में आएं कांटे बेशुमार, बहारें गुलशनां उनको मुबारक, सूखे पात-ए-खिज़ां अपना नसीबा। चलें वोह तो सारा जहां चले, जो हम चलें तो साया भी ना साथ हो, महफ़िल-ए-कहकहां उनको मुबारक, अश्क-ए-फ़रोज़ां अपना नसीबा। सब करम साकी के उनके नाम, अपने हिस्से में आएं खाली जाम, बज़्म-ए-चरागां उनको मुबारक, शाम-ए-ज़ुल्मत कदां अपना नसीबा। खुशियां दोनों जहां की उनको मयस्सर, ग़म-ए-दौरां अपना मुकद्दर, रंगीनियां ज़माने की उनको मुबारक, अंधेरे तमाम अपना नसीबा।
Tuesday, November 9, 2010
कविता - नसीब अपना अपना
Labels: नज़म at 5:15:00 PM Posted by H.K.L. Sachdeva 0 comments
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